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जिस्म के पैंतीस टुकड़े

क्या रूह चुप था महज गवाही के लिए
के बेनकाब कातिलों के मुखड़े हो जाए ,

या फिर न्याय की लहरे ऊंची हो 
इकाई दहाई सी आवाजे सैकड़े हो जाए ,

या मोहब्बत ही कुछ ऐसी होती है
जिसमें जिस्म के पैंतीस टुकड़े हो जाए ।


ऐसी भी क्या इश्क पंक्षी की&nbs
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