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जब शहर हमारा सोता है

जब सर्द अंधेरी रातों में

ये शहर हमारा सोता है


कोई चीथड़ से तन को ढककर

दो दाने जुठों के चखकर

बस देख-देख कर तारों को

सिसक-सिसक कर रोता है 


जब शहर हमारा सोता है


कोई दफ्तर से जब आता है

बे-मन ही मन बहलाता है

नींदों की करवट में तब वो

कई सपने मन में बोता है


जब शहर हमारा सोता है


कोई प्रेमी सूनी रातों में

अपने प्रियतम की बातों में

जग जाहिर खुशियों क

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