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"शिव - सती वियोग"

              "शिव - सती वियोग"

"शिव सती का वियोग समय निकट आ गया था"

ये मात्र सिर्फ दो शरीरों का वियोग नही था बल्कि ऐसा लग रहा था जैसे सूर्य से उसका तेज़, हवा से उसका वेग, चांद से उसकी चांदनी, समुद्र से उसकी गहराई, पर्वत से उसकी ऊँचाई, अग्नि से उसकी तपन का वियोग हो रहा था।

शिव अपने हाथों में सती के शरीर को पकड़े हुए थे, वो इस शरीर को छोड़ना नही चाहते थे। सती की हर एक दर्द भरी आह शिव के हृदय में हज़ारों घावों को उत्पन्न करती और उन्हें बार बार उस कटु क्षण का स्मरण कराती जब वो सती की रक्षा नही कर सके, ये बात उनके मन को कचोट रही थी लेकिन समय के चक्र के सामने ईश्वर की शक्ति भी क्षीण हो जाती है, अब शिव के सामने था सिर्फ सती से वियोग का महान दुःख और पीड़ा।


इस दुःख और पीड़ा के गहरे समुद्र में शिव लगातार डूबते जा रहे थे, वो इतनी गहराई में जा चुके थे कि उम्मीद की सूर्य रूपी किरण भी उन तक नही पहुँच पा रही।

सती भी अपना शरीर ज़िंदगी भर शिव के हाथों में ही रखना चाहती थी, सती को वो सारे मधुर क्षण स्मरण हो रहे थे जो उसने शिव के साथ बिताए थे।

उसका हृदय भी शिव के वियोग से रो रहा था, वो शिव में स्वयं को समाहित करना चाहती थी लेकिन ये अब सम्भव नही था, उसका अंतिम समय आ गया था, वो अब सिर्फ शिव की स्मृतिय

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