सपने पलको पे बिठा के
हम भी निकले थे अपनी बस्ती से
समंदर खा भी जाए तो ना पूछना
'कितना यह सफर बाकी है'
कह दिया था अपनी कश्ती से
फिर कोस दो क
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सपने पलको पे बिठा के
हम भी निकले थे अपनी बस्ती से
समंदर खा भी जाए तो ना पूछना
'कितना यह सफर बाकी है'
कह दिया था अपनी कश्ती से
फिर कोस दो क