बहुत दूर थी मैं खड़ी, उन नज़रों से।
फिर भी न जाने क्यों ये महसूस हुआ,
मानो मेरी आबरू से कही, खिलवाड़ हो रहा।
मैं ओझल हो आईं, कही बड़ी मुश्किल से,
मगर रूह मेरी अब भी कपकपा सी रहीं हैं।
घर से निकलते ही अब, हर नज़र,
उन नज़र की ही, हमशक्ल नज़र आती हैं।
कही आस पास ही मेरे, उन नज़रों का पहरा है।
भीड़ में चलूं, या फिर रहूं मैं एकांत,
लगता हर पल रहता मुझपर,वो अपनी नज़रे गड़ाए।
वो नज़र हर बार.....
मुझे देखती नहीं थी। बल्कि,
वो घूर घूर के मेरे जिस्म को,
छलनी किया करती थीं।
अपने आईने में भी मुझे,अब
वो नज़रे दिखाई देने लगीं।
किससे करू बया, ये खौफ अपना,
अब तो अपनों में भी,
उन नज़रों की परछाईं दिखाई देने लगी।
एक दिन, एक हिम्मत लिए, उन नज़रों को,
मैने "खुद जैसी" बहुतों से, रूबरू करवाया।
मगर उन बहुतों से सिर्फ मुझे,
मेरे बदन ढकने का सुझाव आया।
मैं ओढ़ के उन, बहुतों के सुझाव को,
फिर से घर से निकलने लगीं।
मगर वो नज़रे मुझे वहीं खड़ी मिली,
मैं बच निकली उन नज़रों से उस दिन,
फिर देखा वो नज़रे तो, कही और वार कर रही।
शिकारी बन हर बार नए निशाने से,
कई आबरुओ को ताड़ ताड़ कर रहे।
वो देख सब कुछ मैं, सहम सी गई।
उनकी मदद के लिए, एक तोहफ़ा लेके गई।
एक सीख जो मिली थी, सुझाव में मुझे,
वो समझ के एक कारगर सोच, मैं उनको देने लगी।
फिर कही खुद में बैठकर, मैं बहुत खुश हो रही थी।
वो उपहार जो बहुतों से मिला था मुझे,
आज उसने कई जिस्मो