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कौन हूं मैं?

मैं जागकर भी कहीं, बेशुद पड़ा हूं।

उजाले में होकर भी, लालटेन लिए खड़ा हूं।

भीड़ का हिस्सा हर रोज़ बनता हूं। मगर

सुनसान ही क्यों ख़ुद में, मैं आख़िर हो जाता हूं।


खामियां न जाने कितनी ही ओढ़े हुऐ हूं।

ख़ुद से ही जानने की, 

बहुत कोशिश भी करता हूं।

मगर भूल जाता हूं, उस दुनियां में समाकर।

जहा मैं सिर्फ़ चल रहा,

वहा कई मुझ जैसे दौड़ लगाते हैं।



बया करू किस रोशनी को, 

ये बेजान सा अंधकार अपना।

उसे भी तो अपने वर्चस्व के लिए ,

कुछ घनघोर बदलो का मकान चाहिए।


सब कुछ छोड़ अब, एकांत की ओर आया हूं।

अकेला बनकर, संसार छोड़कर ।

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