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किसान मेघ संवाद

ओ जलधर ! तुम कहाँ चले , 
आँखे चुरा इस बार भी भाग रहे 
रुको! जरा ठहरो थोड़ी मेरी भी सुनते जाओ 
सभी नजरअंदाज करते मुझे कम से कम तुम रुक जाओ ।
सुन यह पुकार ठिठका बादल 
धीमी कर अपनी चाल वह रुका 
कहो ! ए मानव क्यों पुकारा मुझे ? 
ऐसी क्या विपदा है आन पड़ी जो रोका है तुमने मुझे 
अरे बादल हूँ नही रुकता किसी के लिए मैं 
बेबाक बहता रहता हूँ सो करो ना विलम्ब तुम जो कहना है कहो जल्दी । 
क्या क्या कहूँ और किस किस से कहूं तुम्ही बतलाओ 
तुम्हे जिसने बनाया मेरा भी निर्माता है वही 
जिह्वा तो दी मुझे शायद मगर बाकी लोगो को बहरा बना भेज दिया है उसने
धरती पर अपनी परेशानी कह कर तक गया तब आवाज़ लगाया है तुम्हें ।

अच्छा ! ज्यादा समय तुम्हारा ना व्यर्थ करूँगा मैं ,
तो सुनो हे मेघ अब मेरा वृतांत ।

मैं धरती का वासी तुम अंबर में विचरण करने वाले हो 
सुना है वह भगवान भी वही आकाश में रहता है कहीं
सत्य है यह बात यदि 
तो हो सके अगर तो उस तक भी पहुंचा देना यह व्यथा मेरी ।
आलीशान महलो में है नही आशियाना मेरा सो पौ फटते ही रोज़ उठ जाता हूँ ,
निकल पड़ता हूँ लाद फावड़ा कंधे पर मैं अपने !
जोतता हूँ हर दिवस यह धरा मैं ! 
बोता हूँ बीज अनेक जिनके साथ ही दब जाती है किस्मत भी मेरी ।
हे मेघ आशा करता हूँ हर वर्ष मैं यही , 
इस बार तो समय से आ जाओगे तुम ,
दामिनी को संग ला गरज़ गरज़ बरस कर मेरी तपस मिटा जाओगे
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