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दास्तां ए मंजिल

एक वादा किया था ,
वापस आऊँगा हर उम्मीदों पर खड़ा उतरूंगा !
जो भी सपनें देखें थे उन्हें अब साकार कर लौटूँगा यह कहा था ।
इसी दिलासे को मन की ढाल बना घर पीछे छोड़ चला था ,
हर बंधन को तोड़ने को मैं अब तैयार था ।
ना परवाह की थी वर्षों के उस स्नेह की ,
ना ही रुका था उन आसुंओ से ही मैं !
हृदय को पाषाण में कर परिवर्तित उठा यादों का बस्ता ये दुनिया जितने मैं निकल पड़ा था ।
अंजान लोगों के बीच अब अपनी एक अलग सी दुनिया बसानी थी ,
इस भीड़ से निकल अपनी पहचान जो बनानी थी । 
मेरी मंजिल के किस्से तो दुनियां भर में मशहूर थे ,
उसके पीछे ना जाने कितने दीवाने पागल थे ।
हम भी सुध बुध खो उस दौड़ में शामिल हो गए ,
बहुत से रास्तों से हम गुज़रे !
छोटे छोटे कदमों से लक्ष्य की तरफ हम चलते चले गए ।
जो कभी गिरे तो हाँथ पकड़ उठाने वाले भी मिले ,
जिस दफे हारे तो ढाढस बंधाने वाले भी मिले !
जब थक कर मैदान छोड़ जाने लगे तब हिम्मत देने वाले भी मिले ।
अथक प्रयासों के बाद भी ना जाने कहाँ रह गई थी कमी लगने लगा था मानो निर्धारित गंतव्य तक पहुंचना  मेरे प्रारब्ध का हिस्सा ही अब ना था ,
उस रास्ते पर दौड़ते दौड़ते
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