
सुर्ख रंग से रंगी इठलाती चली थी वो दुल्हन
सोलह श्रृंगार से सजा था मुखड़ा और प्रेम श्रृंगार से उसका मन
आज वो सयानी हुई समझी थी दुनिया के भेद,
सुख था प्रियतम के साथ का तो मायका छोड़ने का था खेद।
उसकी दुनिया बट रही थी मायके और ससुराल में,
संग चले थे साजन पर अश्रु सजे थे आंखो में।
इस दृश्य में श्रृंगार को क्या पूर्ण कर रहा है ?
आंखो से छलकते वो वेदना के बूंद
या फिर माथे पर सजा सुर्ख सिंदूर!
दुविधा बहुत है । सवाल एक ही
श्रृंगार की मर्यादा क्या है ?
पिया मिलन का सुख या , मां के आंचल से छूटने का दुख
मेरे नजर में श्रृंगार का एक और
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