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कुछ लिखता हूँ

वर्षो से मन में इच्छा थी, कुछ लिखता हूँ कुछ लिखता हूँ ,

बिखरी आकांक्षाओं को एक रूप में बन्धित करता हूँ ।

पर द्वन्द असीमित था मन में, क्या लिखूं कहा आरम्भ करुँ,

क्या समझाकर क्या दिखलाकर, चंचल मन को स्तम्भ करूँ |

क्या लिखूँ विश्व में व्याप्त क्लेश, या ममता का कोई रूप लिखू,

पीपल की छाया को देखू, क्या चिल-चिल करती धूप लिखूं |

क्या मदिरा की महिमा लिख दूँ, जिसने जीवन आसान

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