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हाँ हूँ ग़रीब

कर श्रम अपार, दे लहू स्वेद, जीवन आसान किया मैंने,

पर बदले में, सुन ओ कृतघ्न, क्या यह सम्मान दिया तुमने ।

क्यूँ मेरे बच्चों की पीड़ा, का तुमको कोई भान नहीं,

क्या मानवता की मर्यादा, रखना भी अब आसान नहीं?

जीवन सुधरे इस चाहत में, मैं छोड़ गाँव आया बस्ती,

कब सोचा था बहुलमूल्य वस्तु सबसे इतनी होगी सस्ती।

सोचा वह जग प्यारा होगा, जीवन का मोल बहुत होगा,

खंडित हो गया स्वप्न मेरा, बच्चों को अकुलाते देखा ।

दो रोटी भी जो देते हो, करते भर भर गुणगान यहाँ,

क्या लेकर आए थे जन्मोसंग, तुम गेहूँ और धान यहाँ?

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