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आशीष "आशु" की शायरी

बस मेरी एक हां के लिए रुका था वो,
वो जिस दिन कहा था उसने
 "जाना पड़ेगा तुम्हें छोड़ के"
असल में तब जा चुका था वो।


कैसे न मर मिटता मैं उसकी मोहब्बत में,
उसे बखूबी इश्क़ करना आता है,
कइयों से लिया है उसने इसका सबक, 
आखिर तजुर्बा ज़ाया कब जाता है।


उसे शेर समझ आया मेरा, उसने खूब दाद दी,
वो बिना कुछ बोले रो पड़ा, शायद जज़्बात समझ गया ।


फूल पत्ती कली गुलाब और गुलदान कहता हूं,
बादल घटा बारिश धरती और आसमान कहता हूं,
नशा शराब शबाब ख्वाहिश और अरमान कहता हूं,
खुशी बरकत सुकूं घर और मकान कहता हूं,
ज़मीर खुलूस गुरुर धरम और ईमान कहता हूं,
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