अनगिनत शब्द
जो देती रही
तुम मुझें
मैं घड़ता रहा
उनसे कविता
पिरोता रहा
तुमकों काव्य जैसा
तुम ही तो थी
मौजूद...
जैसे मेरे
मन के
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अनगिनत शब्द
जो देती रही
तुम मुझें
मैं घड़ता रहा
उनसे कविता
पिरोता रहा
तुमकों काव्य जैसा
तुम ही तो थी
मौजूद...
जैसे मेरे
मन के