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प्रारब्ध

रोज सुबह तुम्हारे फोन की घंटी के साथ

मेरी नींद की तंद्रा टूटती है 

रजाई से बाहर हाथ 

गोताखोर की तरह निकलता है 

फोन को चारों तरफ ढूंढता है 

अधखुली आंखों के सामने 

फोन के स्क्रीन पर तुम्हारे नाम को फ्लैस होता देखकर 

मेरी सारी स्थिति ऊर्जा गतिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है 

शरीर का रजाई से संधि विच्छेद हो जाता है 

अंगड़ाई लेते हुए अलसाई शरीर के साथ 

औपचारिक शब्दों के द्वारा बातचीत का आगाज होता है 

तुम्हारी मनमोहक मृदुल ध्वनि का शंखना

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