बढ़ चलो आकाश तक तुम सूर्य से मिल लो गले,
हो भले ही आग कैसी क्यों न सारे पर जले,
लक्ष्य की तो चेतना में आग होती है सदा,
फिर कहाँ तुम ढूँढते हो छाँव के पीपल हरीले।
पथ से हो अंजान, तो आगाह कर जाऊंगा मैं
राह दिखलाऊँगा मैं, राह दिखलाऊँगा मैं।
त्याग दो ये वेदनाएँ
व्यर्थ की सारी ब्यथाएँ,
केवल समर्पण, प्रेम कैसा ?