![बस यूँ ही - 02- उफ्फ.. कितना काॅनफ्लिक्ट है न!'s image](https://kavishala-ejf3d2fngme3ftfu.z03.azurefd.net/kavishalalabs/post_pics/%40anurag-ankur/None/1669749891800_30-11-2022_00-54-54-AM.png)
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→सीरीज - बस यूँ ही
→भाग - 02
उफ्फ.. कितना काॅनफ्लिक्ट है न!
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हर रोज एक ख़्वाब बुना जाता है, पता नहीं कब, कैसे और क्यों? किसे पड़ी है। बस इन्ही ख्वाबों की बुनकरी ही तो जीवन का पर्याय है। रोजमर्रा की चाहतों का बोझा लिये घूम रहे हैं कभी किसी फोर लेन या किसी मुहल्ले की गली में।
एक अजीब सा रीदम् बजता रहता है दिलो - दिमाग में, कुछ पाने खोने के हिसाब सा। यही रोकने के लिए खो जाना चाहता हूँ किसी आसामी जादू के हाथों में या बन जाना चाहता हूं पीयूष मिश्रा का वह खत जो "रेशम गली के - दूजे कूचे के - चौथे मकां में" पहुँचता तो हो , पर मिल न पाता हो।
खैर, पहुंचना तो होगा ही कहीं न कहीं ,यह सोचकर कहीं नहीं पहुंचना चाहता हूं । कहानियों में सुन रखा है ,कहीं पहुँचने से पहले की तैयारी के बारे में की कैसे साथ ले जाने वाली ची
→सीरीज - बस यूँ ही
→भाग - 02
उफ्फ.. कितना काॅनफ्लिक्ट है न!
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हर रोज एक ख़्वाब बुना जाता है, पता नहीं कब, कैसे और क्यों? किसे पड़ी है। बस इन्ही ख्वाबों की बुनकरी ही तो जीवन का पर्याय है। रोजमर्रा की चाहतों का बोझा लिये घूम रहे हैं कभी किसी फोर लेन या किसी मुहल्ले की गली में।
एक अजीब सा रीदम् बजता रहता है दिलो - दिमाग में, कुछ पाने खोने के हिसाब सा। यही रोकने के लिए खो जाना चाहता हूँ किसी आसामी जादू के हाथों में या बन जाना चाहता हूं पीयूष मिश्रा का वह खत जो "रेशम गली के - दूजे कूचे के - चौथे मकां में" पहुँचता तो हो , पर मिल न पाता हो।
खैर, पहुंचना तो होगा ही कहीं न कहीं ,यह सोचकर कहीं नहीं पहुंचना चाहता हूं । कहानियों में सुन रखा है ,कहीं पहुँचने से पहले की तैयारी के बारे में की कैसे साथ ले जाने वाली ची
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