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समकालीन युगधर्म से सम्पन्न एक काव्य-कृति “द्वापर गाथा” महाकाव्य

(पुस्तक समीक्षा)


समकालीन युगधर्म से सम्पन्न एक काव्य-कृति

“द्वापर गाथा” महाकाव्य


-डॉ. धर्मचन्द्र विद्यालंकार


महाकाव्य साहित्य का सबसे बड़ी विधा है, जिसमें किसी एक महापुरुष का सम्पूर्ण जीवन-चरित्र उसकी समस्त शक्तियों और सीमाओं के साथ वर्णित होता है। एक महापुरुष के साथ उसके सभी समकालीन युगीन-संदर्भ भी जुड़े ही रहते हैं। इसलिए उस युग के देश-काल एवं वातावरण का भी परिचय हमें मिल जाता है। जिसमें महाभारत महाकाव्य तो अपने समकाल का एक विश्वकोष है ही, जिसके विषय में व्यास जी का यही दावा था, कि जो यहाँ पर नहीं है; वह कहीं पर भी नहीं है और जो कुछ इस काव्य में नहीं है; वह भारतवर्ष में नहीं है—

“यन्नेह नास्ति, तन्न नास्ति क्वचिद्

यन्न भारतः तन्न भारतमिति।।”

महाभारत के पात्रों को लेकर कितनी ही भारतीय भाषाओं में कितने ही खण्ड-काव्य और महाकाव्य भी रचे गये हैं। हिन्दी में ही मैथिलीशरण गुप्त का ‘जयद्रत-वध’ तो रामधारी सिंह दिनकर का ‘रश्मिरथी’ खण्ड-काव्य प्रसिद्ध है। तो हरिऔध उपाध्याय का ‘प्रिय-प्रवास’ भी प्रसिद्ध है, महाकाव्य के रूप में। उसी प्रकार से हमें सम्प्रति एक ऐसी ही महाकाव्यी रचना का पूर्णतः पारायण करने का अवसर उपलब्ध हुआ है, जिसका नाम है— “द्वापर गाथा” महाकाव्य। इस महाकाव्य के रचयिता कवि का नाम है ध्रुव नारायण सिंह राई। जोकि बिहार (सपौल) के निवासी थे। उनके सुपुत्र ई. आलोक राई से यह कृति हमें मिली है। महाभारत की ही भाँति यह रचना भी तो अठारह सर्गों में विभक्त महाकाव्यी रचना ही है।

द्वापर युग को ही आधार बनाकर श्री धर्मवीर भारती ने ‘अंधायुग’ जैसा काव्य-नाटक रचा था। जिसमें कि केवल उस युग का शासक धृतराष्ट्र बस आँखों से ही अन्धा नहीं है अपितु वह विवेक-बुद्धि से भी वंचित ही है। अतएव महाभारत की ही एक सूक्ति ‘राजा कालस्य कारणम्’ के आधार पर वह सारा युग ही अन्धकारमय वर्तमान काल की ही भांति। आलोच्य कृति में युगीन परिवेश लगभग वैसा ही मिश्रित है।

कारण, द्रोपदी के चीर-हरण के अवसर पर भीष्म और द्रोण तथा कृपाचार्य जैसे बुद्धिजन एवं विवेकी व्यक्ति भी अपनी विवेक वर्तिका को बुझाकर निर्वाक् बैठे रहते हैं। तभी तो वहाँ पर एक नारी इतने सारे नरश्रेष्ठों के मध्य में भी निरवसन होकर निरीह बनी रहती है- जैसेकी रामायण की सीता को ही अग्नि-परीक्षा उतीर्ण करने के उपरान्त भी लोकापवाद का विवादित विषय बनना क्यों पड़ता है। उसी विषय में निम्नांकित पंक्तियाँ देखिए-

“कैसी दुधारी चाल/हर हालत में/सहना पड़े/नारी को(ही)/लोकापवाद(और)/रहना पड़े/प्रतीक्षा में/चरण-रज-स्पर्श की/बनकर जड़ पाषाण”

उपर्युक्त पंक्तियों में जगतजननी सीता से लेकर द्रोपदी (पांचाली) पर्यन्त अहल्या जैसी अभागिनी अनगिनत निरीह नारियों की व्यथा कथा बेबाक रूप से वर्णित की गई है। अतएव पितृ सत्तात्मक समाज की मूल्य दृष्टि उसके प्रति दोहरी ही सदैव से रही है। क्योंकि उसी का शील या सतीत्वहरण भी होता है और पुनः समाज में अधम एवं पतिता वनिता भी वही समझी जाती है-

“कदाचित्/सदा /सिद्ध करती रही/संस्कृति की विलक्षणता/सभ्यता की श्रेष्ठता/आज का द्वैत!/ माणदण्ड”

यह पाकिस्तानी कवयित्री प्रवीण शाकिर का सही कथन है कि-

“मैं सच बोलूँगी तो भी हार जाऊँगी,

वह झुठ बोलकर भी जीत जाएगा.”

कैसी विचित्र विधि-व्यवस्था की विडम्बना है कि एक रूपसी नारी बेचारी पुरुष-पुंगवों की भोग्या बनकर भी अपयश की ही पात्र बनती है। कारण, क्योंकि उसने एक तपोव्रती पुरुष प्रवर की तपस्या को जो भंग किया है-

“और/बनती है/माध्यम/मेनका/पुरुष का/भंग होती है किसी की तपस्या/उभय स्थितियों में स्त्रीलिंग-/ उपभोग्या (है)”

अर्थात् पुरुष-समाज, नारी का यौन-शोषण करके भी स्वयं अविकार एवं अच्युत ही बना रहता है और अपना दैहिक शोषण करारकर भी एक नारी अपयश की ही भोगभागी क्यों बनती है। वहीं यहाँ पर कवि की चिन्ता का गहनतम बिषय है।

कृत्य कुवारी निरीह नारी का शारीरिक शोषण तो उसको वहीं का भी नहीं रहने देता। कविवर ध्रुव नारायण सिंह राई ने इस विषय में कुमारी कुन्ती की वेदना को ही व्यक्त किया है-

“वसन-भूषण- श्रृंगार/रूपाकर्षण (है) निःसार/तन का संकोचन-उत्थापन;/मन का आलोड़-विलोड़न/सिहरन नस-नस में/सुलगन/नहीं यह वश में/क्या करूँ/ मैं क्वाँरी”

हालांकि नारी भी आखिर एक हाड़-मांस की मानवी ही है, अतः उसमें भी कामनाओं और भावनाओं का ज्वार उठता ही है। फिर सूर्य जैसा बलिष्ट देवपुरूष ने जब उसको बलाद् अपने अंग में भर ही लिया था तो वह कृत्य कुमारी कन्या कर भी क्या सकती थी। हमारे भारतीय समाज में बलातकृत् कन्या या कान्ताएँ कहीं की भी कहाँ रहती है। कारण, समाज में उनको अधम एवं परम पतिता-वनिता समझकर कोई परपुरुष अपनाता भी कहाँ है। स्वजन तो उसका उसका अपना कोई होता ही नहीं है।

कुमारी कन्याओं के साथ शारीरिक संसर्ग सुख लेकर और सन्तानोत्पति करके भी देवपुरुष तो फिर भी समाज में संपूजित ही बने रहे थे। नियोग की प्रथा में स्त्री केवल एक क्षेत्र मात्र ही थी जोकि सन्तान रुपी शस्यों को ही बस अवश भाव से उपजाती थीं। विवाह नामक संस्था में ही उसे कहीं आकर समुचित सम्मान सुलभ हुआ है। कुँवारी कन्याओं से समुत्पन्न सन्तानों को भी दैवी ही तो शास्त्रों में बताया गया है, जबकी वास्तव में देखा जाए तो इस महाकवि की दृष्टि में वह उन देवपुरुषों का स्वेच्छाचार और व्यभिचार ही था। बल्कि उन स्त्रियों के इच्छा के विरुद्ध शारीरिक सम्बन्ध स्यापित करना तो बलात्कार कर्म कोटि में ही आता है। व्यभिचार में भी कम से कम अवैध समबन्ध स्त्री-पुरुष के मध्य में भले ही होता है परन्तु उसमें उन दोनों की सहमति तो शामिल होती ही है। पुरुष समाज तो शारीरिक सम्बन्ध से यौनान्द और सन्तान सुख मिलता ही है-

“जब चाहो आहूत कर लो/तृषा मिटा लो/भस्मानंग कर डालो

ऐसी रस्में/ऐसे नाते/सदा चले हैं/निर्विध्न चला लो”

तथापि अवैध और अनैतिक रूपेण शारीरिक शोषण की शिकार ऐसी ही निरीह नारियों को ब्राह्मण धर्मशास्त्रकारों ने न जाने क्यों कर फिर भी पंचकन्याओं में ही स्थान दिया है। वे हैं- तारा-मन्दोदरी-पांचाली और अहिल्यादि। जिनमें उनकी सहमति के बिना भी उनके साथ पुरुषों ने शारीरिक संसर्ग स्थापित किया था। जब इस आर्यावर्त्त में नाना कुल-वंशों के व्यक्तियों के साथ शारीरिक सम्पर्क स्थपित करके सन्तानों की सृष्टी की है, तथापि ऐसे अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह-समबन्धों से समुत्पन्न सन्तानों की रक्तशुद्धता भी कहाँ अक्षुण्ण रही होगी-

“यूं/संकर/सब/कुल गोत्र वाले/राज्याश्रित/राजदण्ड उभय उत्कंठ/उद्धत-उदंड/वाह्य विनीत-मर्यादित/सभ्य संस्कृत।”

प्रस्तुत कृति के रचनाकार की दृष्टी में यह नियोग की प्रथा भी रक्त-मिश्रण का एक प्रमुख कारण रही है। अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों की शास्त्रीय स्वीकृति आर्य एवं अनार्य रक्त के उन्मुक्त मिश्रण का ही तो परिणाम है, क्योंकि आव्रजक आर्यों ने स्ववंश वृद्धि के लिए ही वह विधि विहित विधान किया था।

नारी का ही एक नाम सीमन्ती भी है कि कही समाज की सारी नैतिक मर्यादाओं के भारी भार को सदा वहन करती है। भारत के भद्रवर्ग ने वैसे तो नारी-समाज की समस्त स्वतंत्रता छीनकर उसको घर-परिवार की संकुल सीमाओं में ही वन्दिनी बनाकर रख छोड़ा है। परन्तु जब किसी कुन्ती जैसी कमनीया कन्या के साथ उसकी इच्छा के बिना भी किसी पुरुष के साथ शारीरिक संबंध स्थापित हो जाते हैं, तो उसी असूर्यपश्या सत्री के दुराचरण से सभ्य समाज की सारी ही मर्यादाएँ क्यों दरक उठती हैं-

“न रहो/धिसीपिटी मर्यादा में/तरुणी असूर्यंपश्या/न रहो”

कामभाव को धर्माचार्यों ने पाप-पुण्य की नैतिकता से जोड़कर उसको प्रेम से परे ही रखा है। जबकि अन्ततः प्रगाढ प्रणय प्रकर्ष ही तो कामभाव की अन्तिम परिणति होती है। परन्तु निरीह नारियों का प्रेम भी पुरुष सत्तात्मक समाज की दृष्टी में विषैली वासना का ही विषय क्यों बन जाता है-

“प्रेम उद्दात भावना/प्रेम न वाम वर्जना/प्रेम नैसर्गिक कामना/प्रेम प्रखर सरिता-धारा/सुष्टु सुन्दर सर्जना/पारस्परिक अवगाहना।”

अतएव प्रेम, एक मानव मन का मधुर-मनोहर मनोभाव ही तो है। जोकि दो विषमलिंगियों को भी काम-भाव से ही सही, कम से कम उन्हें स्नेह-सूत्र में तो बाँधता ही है। बल्कि शतपथ-ब्राह्मण में तो इस संसार की सृष्टि ही काममय बताई गई है- काम भयं इयं जगत्। कामिनोदपि रहस्याख्यानं ब्याज चुम्बनेव प्रधानम्। कहकर काम किंवा प्रेम भाव की अपरिहार्यता को ही शास्त्र-सूत्रकारों ने प्रतिपादित किया है। महाकवि जयशंकर प्रसाद ने तभी तो अपने महाकाव्य का ही नाम श्रद्धा की बजाय ‘कामायनी’ ही रखा है। जहाँ पर वे सर्ग-संरचना के पीछे भी कामभाव और प्रेम-पाश को ही देखते हैं-

“यह सर्ग इच्छा का है परिणाम्

हमी बनाते हैं यहाँ उसे छविधाम”

हमसे यहाँ पर तात्पर्य स्त्री एवं पुरुष के स्नेहिल शारीरिक संसर

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