
हाँ मैं अभिमान नहीं रखती
रखती हूँ ललक सीखने की
बारिशों में पूरा भीगने की
रखती हूँ तलब ख़ुद को तराशने की
मेरे उखड़े हिस्से मेरे उभरे किनारे
जो मुझे अतीत से मिले हैं वो नरम हो जाएँ
उनके नुकीले कोने किसी को चुभ ना जाएँ
हाँ मैंने जीया है अपना सच गौण कर
अपने आंसू मौन कर
जीया हैं मैंने तुम्हारा आडम्बर
जीया है तुमको और तुम्हारा घर
पर इन सबका मैं गुणगान नहीं रखती
हाँ मैं अभिमान नहीं रखती
रखती हूँ एक उमंग
अपने को उभारने की, सुधारने की
अपने अंदर की नारी को सम्मान दूँ
अपने अस्तित्व को सही पहचान दूँ
हाँ मैं जूझती हूँ, बूझती हूँ ख़ुद से अपने अंदर
करती हूँ पर जताती नहीं
सहती हूँ पर बताती नहीं
और फिर भी जानती हूँ
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