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नीलकंठ : समुद्र मंथन

 नीलकंठ : समुंद्र मंथन


हुआ आरंभ समुद्र मंथन का,निकली धारा हलाहल विष की

धरी की धरी रह गई प्रतापी प्रचंड चमक दैत्य और देवता कि

खुली जटाए, धर त्रिशूल बीच समुंदर महाकाल स्वयं आए

सहज उठाया प्याला विष का पीने को तनिक भी ना घबराए

जो हलाहल विष धारण किये था दैत्य और देवजन का काल

आव देखा ना ताव सम्पुर्ण विष पी ना चाहे शिव तत्काल

हो गयी ईक भूल मेरे भोले से,आ गिरी एक बुन्द धरा पे हौले से

जिसे धारण किये थे सम्पूर्ण विषधर जीव जन्तु इस धरा के

तभी तो कापे तिनो लोक नाम मात्र पर ही "निलकंठ'' के

हुआ अकाल काल सम्पन्न, पुन: आरम्भ हुआ समुंद्र मंथन

अब बारी मैं आयी कामधेनु जिसे पाते है ॠषि मुनि

उच्चःश्रवा अश्व था अब आया दैत्यराज बलि ने उसे पाया

फिर था कल्पतरु और रम्भा का चरण, देवो ने इन्हे किया ग्रहण

अब आयी माता लक्ष्मी जो स्वत: करे विष्णु का वरण

अब हुई प्रकट कन्या वारुणी दैत्यों ने किया उसे ग्रहण

अब चरण आया चंद्रमा,पारिजात वृक्ष और शंख के वरण का

अब घड़ी थी परिणाम की, आये धन्वन्तरी लेकर घट अमृत का

दैत्य तो ठहरे दैत्य था कपट मन मे ,अमृत घट छीन लिया

जाने अनजाने मे ही सही पर फिर आपस में युद्ध किया

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