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अवनि का श्रृंगार

अवनि का श्रृंगार

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जिस धरती पर हमने जन्म लिया,

बह रही उसकी आँखों से अश्रुधारा।

स्वार्थ, लोलुपतावश अंधाधुंध दोहन से,

हमने धरा का अनुपम सौंदर्य उजाड़ा।

माँ लुटाती रही सदा ममता हम पर,

दुख सहकर भी की निःस्वार्थ प्यार।

नहीं याद रहा मानव को संतान-धर्म,

तभी तो मचा है चारों ओर हाहाकार।

जल, थल ,वायु सब हो गये प्रदूषित,

कम न हुआ मानवों का अत्याचार।

नियमों को तोड़ा, कर्तव्य भूलकर,

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