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बिन पैसे की खरीदारी



छज्जों पे रखे,

वो मिट्टी के खिलौने,

बड़े याद आ रहे हैं,

जिनकी खुशबू,

हम अपने हाथों से रचते थे,

अब वहीं सामने रखे सुते मुलायम,

मखमल के गद्दो पे पड़े खिलौने ताक रहे हैं,

कि,

कोई उन्हें हाथ लगाए,

मां की साड़ी का बचा टुकड़ा,

हमारी खरीदारी थी,

उस वक्त के बिन पैसे की,

जिनसे हम अपनी बेजान गुड़िया में जान भरते थे,

करते थे हम बातें,

जादू की,

फूलों की कोई छोटी सी कली,

बनती थी मांग टीका,

अब ज्वाहरातों से लदे,

माथे की सीकन पे,

नगों की बिंदी सही नहीं जाती,

माटी के घरौंदों में पुआलों के साथ,

पत्तों के बर्तन,

और,

पानी के साथ,

कंकड़ पत्थर शोभा बनते थे,

माटी के सने चावल दाल की,

एक अलग चाहत थी,

उस बेजुबान गुड़ियों की खामोशी भरे,

अल्फ़ाज़ अब तबाही लगते हैं,

मेरे घर की,

दीवारें,

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