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मैं बिकती हूँ बाज़ारों में, तन ढंकने को तन देती हूँ 

मैं बिकती हूँ बाज़ारों में, अन्न पाने को तन देती हूँ 


तन देना है मर्जी मेरी, मैं अपने दम पर जीती हूँ 

जिल्लत की पानी मंजूर नहीं, मेहनत का विष मैं पिती हूँ 

        

हाथ पसारा जब मैंने, हवस की नज़रों ने भेद दिया         

अपनों के हीं घेरे में, तन मन मेरा छेद दिया 


प्यार जताया जिसने भी, बस मेरे तन का भूखा है

इतनों ने प्यास बुझाई की, तन-मन मेरा सूखा है

अंजान हाथों में सौप दिया, अपनो ने मुझको बेच दिया

कुछ पैसों की लालच में, गला बचपन का रेंत दिया


जब भी मैं चिल्लाती थी, मेरी आवाज़ सुनी ना जाती थी

इस नर्क की अब मैं बंदी हूँ, ये सोच-सोच घबराती थी


मैं उस गलियारे रहती हूँ, जिसे कहते लोग सकुचाते है 

पर देख कर मेरी खिड़की को, मन हीं मन ललचाते हैं             


जो मुझपर दाग लगाते हैं, हर शाम मेरे घर आते हैं 

मेरे यौवन के सागर में बेसुध हो गोते खाते है  

 

                

मेरे मन का कोई मोल नहीं, बस तन की बोली लगती है 

हीं मांग मेरी लाल तो क्या, पर सेज रोज़ हीं सजती है                


चौखट मेरा एक मंदिर है, जो मांगे मन की पाते है 

जो अपने घर में खुश ना हो, वो ज्यादा भेंट चढ़ाते है                     

                    

मैं मंदिर भी गिरजा घर भी, मैं मस्जिद भी गुरुद्वारा भी 

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