नर हूँ ना मैं नारी हूँ, लिंग भेद पर भारी हूँ
पर समाज का हिस्सा हूँ मैं, और जीने का अधिकारी हूँ
जो है जैसा भी है रुप मेरा, मैंने ना कोई भेष धरा
अपने सांचें मे कसकर हीं, ईश्वर ने मेरा रुप गढ़ा
माँ के पेट से जन्म लिया, जब पिता ने मुझको गोद लिया
मेरी शीतल काया पर ही, शीतल मेरा नाम दिया
जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, सबसे अलग मैं खड़ा हुआ
सबसे हट कर पाया खुद को, अंजाने तन मे बंधा हुआ
दिन बीते काया बदली, मेरी खुद की आभा बदली
बदन मेरा गठीला था पर, मेरी हर एक अदा बदली
तब मैंने खुद को समझाया, दिल को अपने बहलाया
जानकर असली काया अपनी, मैं थोड़ा ना शर्माया
मर्द के जैसे मेरे बदन में, औरत कोई छुपी हुई थी
निखर गई अब चाल ढाल जो, मेरे अंदर दबी हुई थी
देखकर मेरी ऐसी हालत, माँ ने मुझको त्याग दिया
मैं ज़िंदा हूँ फिर भी लेकिन, मेरी चिता को आग दिया