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अपनों को खो देने का ग़म

अपनों को खो देना का ग़म, रह रह कर हमें सताएगा

चाहे मरहम लगा लो जितना, ये घाव ना भरने पाएगा

कैसे हम भुला दे उनको, जो अपने संग हीं बैठे थे

रिश्ता नहीं था उनसे फिर भी, अपनो से हीं लगते थे

 

कैसे हम अब याद करे ना, उन हँसते-मुस्काते चेहरों को

एक पल में हीं जो तोड़ निकल गए, अपने सांस के पहरों को

हम थे, संग थे ख्वाब हमारे, बाकी सब दुनियादारी थी

लेकिन उस दुनिया में तो, उन की भी हिस्सेदारी थी

 

चहल पहल थी वहाँ हमेशा मदहोशी का आलम था

लेकिन घात लगाकर बैठा एक आतंकी अंजान भी था

सब थे खोए अपनी धुन में, नज़र सभी की अपनो पर थी

पर उससे अंजान रहे सब, जिसकी नज़र बस हमपर थी

 

अपनी जुबान में अपने ईश का, नाम बार बार वो लाते थे

अपनी भाषा में जाने क्या कहकर वो जोर ज़ोर चिल्लाते थे

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