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अधूरा ख़्वाब


ख़्वाब देखे जो भी मैंने सब अधूरे रह गए

मिटटी के बर्तन थे कच्चे, पानी के संग बह गए


रेत की दीवार थी और दलदली सी छतरही

मौज़ों के टकराव से वो अंत तक लड़ती रही


साल सोलह कर लिए जो पूरे अपने उम्र के

कैद में घिरने लगी मैं बिन किये एक जुर्म के


स्कूल का बस्ता भी मेरा कोने में था पड गया

सांस लेती किताबों पर भी धूल सा एक जम गया

 

शौक दिल में आ बसा था “लॉ” की पढ़ाई का

चल पड़ी थी थाम के मैं अस्त्र उस लड़ाई का


दो दिनों भी चल सका ना क्रोध मेरे भाई का

बस मेरा एक ही साथी था जो इस लडाई का


चूल्हा और चौकी में मेरा वक़्त यूं कटता गया

घर की लाचारी के आगे दम मेरा घुटता गया


एक अधूरी चाह बनके ग़म मेरा बढ़ता गया

हौंसला जो साथ में था वो कहीं खोता गया


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