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मैं तुम्हारी मेज पर सजी किताबें

करीने से सजी किताबे मेज पर झांकती हुई अब बोलती है मुझसे....बात तो नही करती पर बोलती है.... बेतहाशा बोलती है....कभी कभी कहती है आओ अब मुंह उठा कर किस इब्तिदा में खो रहे हो....एक मुक्कमल जहा थी कभी मैं तुम्हारी....पर अब जब से तुम भूले हो हमे निहारना....किसी और ने हमे उस शिद्दत से देखा भी नही छूना तो दूर की बात ही हुई फिर....जिस सरगोशी से तुम खो गए थे हमे पढ़ते हुए वो दीवानगी भी नही दिखी अब हमे खुद में किसी और के लिए।।

आना जरूर आना एक मुद्दत से इंतजार में है हमसब के सब यहा धूल फांकते हुए चढ़ी गर्द चेहरों पर लिए.... हटाना जरूर हटाना और खोलना वो पन्ना जिसे पढ़ तुमने महसूस किया था हमे अपने दिल के करीब....और हम बन गए थे तुम्हारे कुछ दिन के ही सही पर एक मुख्तसर सी उम्र के वो साथी जिसे पढ़ तुमने
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