बहुत सी बाते होती है कहने सुनने को पर मौन हो जाती है। किसी घुप अंधेरे में गुम सी। रोज सूरज भी निकलता है आकाश में चढ़ता हुआ और डूब भी जाता है.....बहुत जल्दी में होता है शायद। दिन बहुत छोटे हो गए है राते लंबी और इस खेल में धूप गुनगुनी सी हो गई है। धुंध बढ़ने को है अब गोलंबर को ढकते हुए उतर जायेगी धरा के आंगन में और घेर लेगी समस्त वन संपदा को जिसमे देख पाना मुश्किल होगा एक निश्चित सी दूरी के आगे।
वो दूरी जिसके आगे भी धुंध है शायद
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