कान्हा चले गये तुम कहे बिना /
विदा के एक भी शब्द /
पर सोचती हूं मैं कभी आना तुम लौटकर यहां /निहारना उन सूने पथों को /
जिन पर पड़ी थी पग धूलि हमारी /
कभी निहारना तुम उन बंद वातायनों को/
जिन पर टकटकी लगाए /
तुम मेरी एक झलक देखने को रहते थे आतुर/ करना प्रतीक्षा नदी के उसी तट पर/
उसी सूनी जगह/
जहां हम मिलते थे प्रायः/
किया करती थी मैं पहरों प्रतीक्षा तुम्हारे आने की/ और करना अनुभव/
कैसी होती है प्रतीक्षा की पीड़ा/
कभी तुम उन वृक्षों की शाखों पर /
अकेले बैठकर देखना जहां तुम और मैं बैठते थे साथ /
और जानना कि क्या अर्थ होता है साथ छूटने का/ क्या अर्थ होता है ऐसे किसे के वहां न होने का/
जहां उसे होना चाहिए था /
जहां उसके होने की ऐसी आदत पड़ गई हो /जैसे अनुभव करना सांसों का उठना गिरना/ निहारना तुम कभी शून्य में व्योम/
देखना कभी अमावस की अंधेंरी रात का गगन /
और समझना कि
क्यों कुछ अनुपस्थितियां इतनी पीड़ादायी होती हैं /
क्यों इतना खालीपन दे जाती हैं/
सुनना कभी उन प्रस्तर खंडों पर बैठकर /
अकेले ही पुकारकर अपने लौटते स्वर की प्रतिध्वनियां/ जहां कभी हम सुना करते थे /
अपने समवेत स्वरों की लौटती प्रतिध्वनियां /
अपने उसी सूने कक्ष में करना कभी/
यूं ही कुछ अंतहीन प्रतीक्षाएं/
जहां छुप छुपकर हमने कितने पहर थे बिताए / कानों को लगाना द्वार पर सुनने को ऐसी आहटें /
जो ज्ञात हो कि आयेगीं नहीं/