सीता (१)(२)'s image

भय ,संशय ,दुविधा

सब है मन में।


क्या सचमुच कभी

राम मुझे ढूंढते आ पाएंगे?


क्या राम को कभी

हो पाएगा ज्ञात कि

मैं हूं बंदी

सागर के पार,

सोने की इस लंका में

इस अशोक वाटिका में‌।


यदि ज्ञात भी हो गया

मेरा पता

तो भला

कैसे कर पाएंगे राम-लखन

मध्य का यह

अथाह सागर पार।


मात्र दो बंधु,

कर पाएंगे कैसे सामना

रावण की असीमित सेना का,

अपार बल का

साथ हो जिसे छल का।


क्या रह जाऊंगी जीवनपर्यंत,

ऐसे ही मैं

प्रतीक्षारत।


हो जाएगा क्या यहीं

सुदूर इस लंका में

मरण मेरा?



क्या जीवन मेरा

मुक्त न हो पाएगा कभी?


क्या रह जाऊंगी

मैं झेलती

जीवन भर

रावण के कुत्सित प्रयासों को,

उसके छल को?


क्या होगा कल

यदि उतर आया

रावण बल प्रयोग पर?


क्या ज्ञात होगा

उस गरुण को जिसने

मुझे बचाने की,

की थी चेष्टा कि

है कौन मेरा अपहरणकर्ता?


क्या रह पाएंगे होंगे

उसके प्राण शेष तब तक,

जब तक आए होंगे

राम लखन ढूंढते मुझे

उस पथ पर।


क्या जो गगन पथ से

उड़ कर आया था

यह पुष्पक विमान

पाया होगा उसे कोई पहचान?


साधारण तो नहीं है

यह विमान।


न ऐसे विमान होंगे

अन्य किसी के पास।


अवश्य इसके स्वामी की

किसी न किसी को

तो होगी पहचान

जिसने सुनी होगी पथ में

आर्त पुकारें मेरीं

मेरा करुण क्रंदन।


बस प्रार्थना मेरी

प्रभु से है यही

कोई इतना राम को बता दे,

कि उनकी वैदेही कहां है

और किसने किया है

हरण उसका।


२.

अब तक तो रावण

नहीं उतरा है

बल प्रयोग पर।


उसे चाहिए मुझसे

विवाह की स्वीकृति।


पर जिस दिन

उसका मन बदला,

और उसने किया निर्णय

कि उसे नहीं चाहिए

अब मेरी स्वीकृति

मेरी सहमति ,

तब क्या होगा?


यदि उतर आया रावण

मुझसे बल प्रयोग पर

तो उसके इस अभेद्य दुर्ग में

एकाकी कैसे भला

बचा पाऊंगी मैं स्वयं को।


कौन सुन पाएगा

यहां मेरी पुकारें,

इतना अभेद्य दुर्ग

इतनी ऊंची प्राचीरे।


इस अशोक वाटिका में

इस खुले बंदी गृह में

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