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पहाड़ों की पीड़ा

उन पथरीले पहाड़ों की

कौन समझ सकता है पीड़ा?

धीरे-धीरे नोचे गए जिनके शरीर,

जिसके हिस्से काटे गए

कभी इमारतें, कभी सड़कें, कभी कंक्रीट

बनाने के लिए,

गिट्टी बनाने में।



कभी नदियों की रेत पर लगे प्रतिबंध से,

उनके शरीर के हिस्सों के

छोटे -छोटे टुकड़े महीन किए गये

उत्पादित रेत बनाने के लिए।



ये सब कुछ प्राप्त करने के लिए,

निर्ममता से,

कभी तोड़े गए उनके सबल शरीर

विस्फोटकों से ,

कभी नोचा गया उनके शरीर को

मशीनों के पैने नाखूनों से,

कभी चलाए गए उन पर गैंती और हथौड़े।


जब बारिशें आती है

तो पानी की ठंडी बूंदों से

जैसे जल उठते हैं

उनके नुचे हुए शरीर के

सोए हुए घाव,

रिस उठतें हैं उनके घाव ।


धीरे-धीरे ऐसे पहाड़

असमर्थ हो जाते हैं

अपने दुखों का बोझ सहने में,

अपने शरीर के घावों की

असहनीय

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