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मेरे बाबूजी

पता नहीं क्या बात थी पर

अपने में रहते अक्सर

सिमटे-सकुचाये बाबूजी,

सारे दुख अपने सहेजें अपने तक

पूछो तो हंसकर टाल जाएं।


दो पैसे बचाने की खातिर

रिक्शा भी न करें

जून की कड़कती धूप में

मीलों पैदल चल जाएं।


अपने खेतों की मिट्टी से प्यार इतना,

धूप ,जाड़ा,बरसात न देखें

कुछ उपजाने के लिए

खेतों में जैसे मर खप जाए।


कभी इस बात की करें न चिंता कि

जितना लगाया खेतों में

उतना कभी भी वापस न पाया।


उन्हें रहा संतोष इस बात का

कि उनका

खेत कभी न परती रह पाया ।


वैसे रहें चुप -चुप से पर

कई बार बेमतलब की बातों पर

जोर जोर से ठहाके लगाएं।

कभी-कभी जब हों प्रसन्न

कविताएं कितने कवियों की

हमको गाकर सस्वर सुनाएं।



अपने बचपन की बातें सुनाते -सुनाते

अक्सर वो भावुक हो जाएं

बचपन में ही मां को खो देने का,

लगभग अनाथ जीवन जीने का दर्द

उनके स्वर से छलक आए।

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