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जो कह नहीं पाते

कई बार हम कहना चाहते हैं

बहुत कुछ पर कह नहीं पाते ,

कितने वाक्य कितने वार्तालाप

जैसे उमड़ते रहते हैं हृदय में,

पर या तो अधरों पर आ नहीं पाते,

या फिर आते हैं

मात्र कुछ महज औपचारिक शब्द,

उससे बिल्कुल अलग

जो हम चाहते थे कहना।

जो अभिव्यक्ति नहीं हो पाती अधरों से ,

जो बातें हम नहीं कह पाते

उतर आती हैं कभी सफेद पन्नों पर ,

कभी मोबाईल के धड़कते हुए की बोर्ड से

कर लेती हैं यात्राएं.

आभासी दुनिया की भीड़ तक।

कई बार बस इतनी सी चाह जागती है

कि कोई बस इतना कह दे

कहते रहो हम पढ़ रहे हैं

कहते रहो हम सुन रहे हैं

बस किसी का इतना कहना भर

दे जाता है कितनी सांत्वना।

पता नहीं क्यों कितनी बार लगता है

जैसे कोई कह रहा है कुछ

मांग रहा थोड़ी आश्वस्ति

चाहता है थोड़ा ध्यान

वैसे ही जैसे चाहता हूं मैं ।

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