किसको सुनाऊँ दास्ता मेरी, क्या हो रहा अंदर ही अंदर युही...
छत पे जाके चाँद से बात करूँ कभी,
तो वो भी बादलों में छिप जाता तभी...
तारों से बात कर ली कभी तो अधुरी बात पूरी करू कैसे,
अनगिनत तारों में से पहली रात का तारा ढुंढु कैसे...
ख्वाबों में ही सही आशियाने जो बसाए थे,
मुड़ के कभी तुम देख तो लेते...
मन की तरंगे जो लहरों सी थी कभी बहती,
अक्सर अब उनमे झील सी खामोशी क्यों रहती...
दिन कभी तो कभी रात,
मिट्टी में बैठे हुए अक्सर होती है ये बात...
बोल रहा हूं पर लफ्ज सुनायी क्यों नही देते,
लफ्ज मेरे हवाओं पे सवार क्यों नही होते...
मिट्टी तो उडती है हवा भी बहती है,
तो बस आवाज मेरी क्यों दबी दबी सी रहती है...