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हमारे समय के बुद्धिजीवी


कितना असभ्य हो चला है समाज...

शर्म नाम की कोई चीज नहीं रह गई, मूर्ख तो मूर्ख, पढ़े-लिखे साहित्यकार-इतिहासकार टाइप लोग भी पीछे नहीं..भविष्य के लिए कैसा समाज बना रहे हैं ये बुद्धिजीवी-विचारक.


समाजिक विसंगतियों को दूर करने के लिए सभ्य-शालीन-सटीक व प्रभावी अवरोध की भी कला होनी चाहिए, नहीं तो पढ़े-लिखे व अनपढ़ में क्या विभेद..


समाज में विसंगतियां सामाजिक व्यवस्था के शुरुआती से ही होती रही हैं, आज का समाज उसी तत्कालीन समाज में क्रमवार सुधार का फलस्वरूप है। वर्तमान सामाजिक विसंगतियों में (खुद को) तथाकथित समाज सुधारक (कहने वाले), कुछ अपवाद स्वरूप सज्जन को छोर दें,( क्योंकि अच्छे अथवा बुरे लोग समाजिक व्यवस्था से पूरी तरह खत्म नहीं होते ) तो समाज सुधार के नाम पर बड़ी-नग्न अभिव्यक्ति करने से परहेज नहीं करते, इससे समाज में सुधार हो न हो, विसंगतियों का और प्रसार ही हो जाता है, भई यदि आप समाज सुधार हेतु सभ्य सामाजिक स्वीकार्य तरीके को अपनाने में अक्षम हैं (या विसंगति का आनन्द लेते हैं अथवा उसकी आढ में खुद की भड़ास निकलते हैं ) तो आप रहने दीजिए, समाज खुद कोई न कोई हल निकाल लेगा जैसे बीज सड़ने के बाद खुद अंकुरित होकर नए पादप का रूप लेकर नव-सृजन करता है, उसी तरह। आप अपनी बेशर्म बौद्धिकता को रहने दीजिए।


समाजिक विसंगतियों का हल नग्नता ( वैचारिक, भाषाई अथवा व्यवहारिक ) कभी नहीं हो सकती, जख्में जख्मों को कदापि नहीं भरेंगीं, आग पानी से ही बूझेंगे, हिंसा का हल हिंसा से नहीं, अहिंसा ही एकमात्र स्थायी और दीर्घकालिक समाधान है, नग्नता को दूर करने के लिए खुद नङ्गे खड़े हो जाना नहीं।


यदि आपमें इतनी विमर्शनीय संवेदनशीलता नहीं तो आपका किताबी अध्ययन महज प्रपंच ही है,आपका किताबी ज्

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