डगमगाई या बुझी शमा वतन-ए-जान की?
जिस वक़्त लुट रही थी,अस्मिता हिन्दोस्तान की
न फिक्र है न जिक्र है बेटी के अभिमान की
देख अस्थियां जलनी बाकी तेरी झूठी शान की
ना किसी को अँधा कहकर मैंने उसका परिहास किया
न अंग प्रदर्शन करके अपना,ब्रह्मत्व का उनके त्रास किया
मैं तो अठ वर्ष की कन्या कोमल अति सुकुमारी थी
मै भी नूर बाबुल का अपने माँ की राजदुलारी थी
मैं भी हँसती थी,खाती थी और खेलने जाती थी
स्त्रीत्व पर मै भी अपने बड़े नाज दिखलाती थी
पर हे श्वानो!हे पामरो! क्यों नोच तुमने मुझको डाला
अंधे होकर बैठे कैसे कैसा गटका तुमने हाला
क्या कन्या पूजन में मैं एक कन्या नहीं दिखलाई दी तुमको
माता को पूजो दर दर जाकर क्या उसने गवाही दी तुमको
तुम भी नारी सुता हो,बहिन,बेटी भी तेरी नारी है
मत भूलो यदि मै अबला हूँ तो वो भी सब बेचारी है
चल अब तेरे पौरुष की कथा सुनाती हूँ तुझको
पाकर जिसके बल की छाया निर्ल्ल्ज़ तूने नोचा मुझको
छिन,छपट मत मांग-मांग बेगैरत नेता बन जाते है
मन के जंगली,जंगल का हक पाकर ठन जाते है
न कृष्ण कोई आया,ना चिर मिला कोई मुझको
हय ये कैसा कलयुग जो दंड न मिला तुझको
अब तो कृष्ण बन