
# द्रौपदी की प्रतिज्ञा
द्रौपदी का परिचय-
आ खींच दुशासन चीर मेरा, हर ले मेरा सौंदर्य सजल ।
आ केश पकड़ कर खींच मुझे, अपना परिचय दे ऐ निर्बल ।
मैं राजवंशिनी कुल कीर्ति हूँ, गांधारी हूँ मैं कुंती हूँ ।
अतुलित हूँ मैं अभिमानी हूँ, ना भूल अरि मैं रानी हूँ ।।
है अग्निकुण्ड मेरा उद्भव, मुखमण्डल का ये तेज देख ।
सौंदर्य ना मुझसा जग में द्वय, नैंनो में रति का वेग देख ।
जग में मुझसा सौंदर्य कहाँ, है मुझसा अतुलित शौर्य कहाँ ।
है अनल समाये अंग मेरे, मुझसा प्रचंड विध्वंश कहाँ ।।
द्रौपदी हूँ सुन मैं नारी हूँ, ना सोच की मैं लाचारी हूँ ।
मुझसे पलता है जग सारा, मुझमें है विष-अमृत धारा ।
मुझमें कुरुक्षेत्र समाया है, मुझमें करुणा की रस-धारा ।।
है यौवन मेरी मृगतृष्णा, मुझे पाने का ना स्वप्न देख ।
हठधर्मी तू हठधर्म त्याग, नतमस्तक हो घुटनों को टेक ।
ना भूल कर मुझे साधने की, सोच ना हद लाँघने की ।
बंधनों से मुक्त हूँ मैं, रक्त-रंजित शस्त्र हूँ मैं ।।
द्रौपदी की चेतावनी-
पहचान अरि अपना हित तू, ये युद्ध प्रबल टल जाने दे ।
हाथों को अपने जोड़ के झुक, मुझे क्रोध रहित हो जाने दे ।
नारी सदैव गौरव गाथा, नारी नारायण की भाषा ।
नारी में सृजन समाया है, नारी जग की मृदु अभिलाषा ।
नारी का तू अपमान ना कर, भीषण अधर्म का काम ना कर ।
तू ठहर, ना कर ये नादानी, ना छेड़ मुझे ऐ अभिमानी ।।
अंतिम अवसर तूझे देती हूँ, तू सोच दण्ड मुझे छूने का ।
अपने जीवन की रक्षा कर, वर सुखद विरासत जीने का ।।
द्रौपदी का विलाप-
चीरहरण का पाप किया, कुल की मर्यादा खाक किया ।
तेरी मति गयी है मारी, जो तूने भीषण अपराध किया ।।
नीर निरीह हुए ओझल, चछु ने चंचलता खोयी ।
तू अबोध दुशासन ना समझ सका की वीर द्रौपदी क्यों रोयी ।
तू बोल ये उपवन क्यों उजड़ा, ऋंगार रति का क्यों बिखरा ।