चाहतों की कश्तियाँ
चाहतों की कश्तियाँ फिरती रही थी दर-बदर ।
तुझको मिल के यूँ लगा जैसे इन्हें तेरी खबर ।
कुछ नहीं मैं तेरे बिन तुझमें बसे सब ख़्वाब हैं ।
सुर्ख़ होंठों पर तेरे ठिठके मेरे अल्फ़ाज़ हैं ।।
आ लिपट के थाम मुझको रात ये ढलने को है ।
बुझ गये जो भीगे अरमां आज फिर जलने को है ।
आ कि ऐसी रात हरगिज़ फिर ना वापिस आयेगी ।
ख़ुशबू तेरी ज़ुल्फ़ों की फिर ना क़यामत ढायेगी ।।
मुझमें तू कुछ यूँ उतर जैसे जमीं पर रात है ।
इत्र तन का यूँ लुटा जैसे तू महकी बाग है ।
यूँ महक कि सुबह के ओस भी महके मिले ।
पृथक हो भौंरे कली से तेरे तन लिपटे मिले ।।
ढहने दे इन शर्म के शोरों भरे दीवार को ।
ज़र्रे-ज़र्रे से गुज़ारिश, मुझसे मिला मेरे यार को ।।
तू खड़ी ख़ुद को समेटे सदियों क़यामत ढ़ायी है ।
आ गले लग जा कि अब तो बारिशें गिर आई है ।
खोल ख़ुद को भीगने दे चाहतों की बारिशें हैं ।
तोड़ दे अपने हदों को ये अपने मिलन की साज़िशें हैं ।
क्या पता फिर बारिशें हों और तू ना भीग पाये ।
क्या पता अपने मिलन की फिर ना कोई रात आये ।।
बन नदी तू तोड़ दे अपने हदों की बाँध को ।
हसरत अगर हो तेरी तो मैं तोड़ लाऊँ चाँद को ।
जादू कर कुछ यूँ कि फिर ख़त्म ना ये रात हो ।
बस हमीं दो