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सहजोबाई जी की अनन्य गुरु भक्ति

लीला धारी लीला करते, हरते भक्तों के दिल।
उमंग उठी हिय में हरि के, आएं सहजो से मिल।।
हुए प्रकट तुरंत ही, पास सहजो की कुटिया के।
बुहारी लगाने में थी लीन, नहीं देखा उसने सीस उठा के।।
प्रसन्न हुए आज देखते ही, निज मुख से फरमाया "सहजो"।
समक्ष तुम्हारे हम खड़े हैं ज़रा शीश उठा के तो देखो।।
ऋषि, मुनि, योगी, तपस्वी तरस्ते हैं जिन दर्शन को।
बड़े ऊंचे भाग हैं तेरे , हम आए हैं मिलने को।।
सहजो कहती प्रभो! अकारन ही आपने किरपा करदी है।
आपके दर्शन पाने की, नहीं मुझको कोई जल्दी है।।

आशा थी श्री प्रभु को, होगा सत्कार भारी आज।
सहजो किंतु नहीं छोड़ती, हाथों से बुहारी आज।।
पूछा प्रभु ने सहजो से, एसी कोन सी दौलत पाई है ?
दर्शन की भी नहीं है इच्छा, कर ली कौन सी कमाई है ?
तीन लोक चौदह भुवन की, कर ली मैने कमाई है।
पूरन गुरु के रूप में मैने, आपकी ज्योति पाई है।।
मुक्त कण्ठ से सहजो फिर, गुरु के गुनवाद गाने लगी।
समक्ष हरि सुनते रहे, वो आनंद में इठलाने लगी।।
कहा हरि ने ठहर सहजो, रीति मेरी ऐसी है।
जहां जाऊं दूं मै वर, आज भी इच्छा वैसी है।।

प्रभू आप मुझको दोगे क्या, आप तो स्वयं एक दान हो।
जिनको मेरे गुरु बक्शते एक महानतम वरदान हो।।
कहा प्रभु ने अच्छा ठीक, अब यहीं बात बनाएगी।
पहली बार तेरे घर हैं आए, अंदर नहीं बुलाएगी।।
इतना सुनकर कहा सहजो ने, केवल एक सिंहासन घर में है।
जिस पर मेरे गुरु बिराजते, नहीं कोई और आसन घर में है।।
आसन नहीं है घर के अंदर, नीचे ही बैठना होगा।
आए हो जब इस निर्धन के घर, इतना कष्ट तो सहना होगा।।
कहा प्रभु ने मुस्कुरा कर के, सहजो अंदर तो बुलाएगी।
बैठ जाएंगे हम प्रेम से जहां तू बैठाएगी।।

इतना सुनकर सहजो फिर, प्रभु को अंदर ले आती है।
बाहर से चाहे कुछ न कहती अंदर से भाग मनाती है।।
आज्ञा पाकर सहजो ने, नीचे ही आ
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