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ओस जैसी ज़िन्दगी

हरे झुकते पत्तों पर

सरसराती सी फिसलन

घास पर हीरे के जैसे हो रखी

कोई नयी नवेली दुल्हन

अंततः रिसते हुए जाती मिटटी के आगोश

क्यूँ इतनी छोटी जिन्दगी होती तेरी ओस


तेरा अस्तित्व तेरा वजूद तब दिखता

जब बूंदों से होती ये ज़मीं पावन

बिन बारिश न है तू

जब होती तो पल म

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