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जितनी चपलता तुम्हारे अंदर

तुम नकली स्वरों से भी,
कितना,मोह लेती सबको।
मेरी वास्तविक खबरों को भी
 न कोई सुनने आता है।
जितनी चपलता तुम्हारे अंदर,
कोई और तनिक भी उसका
हकदार न हो पाता है।
तुम अपने झूठ को भी,
सच साबित कर जाती हो।
मेरा सच खुद को साबित करते-करते,
झूठा ही पड़ जाता है।
तुम्हारे वाह आडंबर से यहाँ,
सारी दुनियादारी प्रभावित है।
में जितना भी तम हटा रहा,
पर यहाँ तम में रहने की आदत है।
बो तुम्हारे क्षणिक आकर्षक धन को,
खुद की अक्षय निधि मन रहे।
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