
घने काले बादलों के बीच सूरज की तीखी किरणें उसकी आँखों में चमचमा रही थी।
तभी एक ज़ोर की आवाज़ हुई - "चटाक", अब उस तारे भी नज़र आने लगे।
माँ ने झंझोरते हुए कहा - "आंखें फ़ूट जाएंगी। कितनी बार मना किया है कि ऐसे सूरज को ना घूरा कर। चल भाग यहां से।"
वो मुहँ बना कर पलट गया, पर पलटते ही चेहरे पर एक मुस्कराहट सी तैर गई, जैसे कुछ चतुराई करके जीत मिलने पर चेहरे पर आती है। ख़ैर ये जीत ही तो थी कि माँ ने थप्पड़ मारा था। ना जाने कितने दिनों से सीधे मुहँ बात तक नहीं करी थी माँ ने।
"ये सब क्या कर रही है तू माँ।"
"अरे ये आज सब बिक जाएगा।" माँ ने झंडे, गुब्बारे, चश्मे और ना जाने क्या क्या अपने थैले में भरते हुए कहा। "चल जल्दी कर, मेरा हाथ बटा नहीं तो देर हो जाएगी, फिर कुछ ना बिकेगा।"
"पर मुझे नहीं जाना, देख ना कितनी तेज़ बारिश हो रही है। मुझे खेलना है। मैं कल चल दूँगा,पक्का।" उसने आशा भरी आवाज़ में कहा।
"ज़्यादा बकवास ना कर, कल नहीं आज ही बेचना है ये सब, कल नहीं बिकेगा, सब बेकार हो जाएगा, भूल गया आज आज़ादी वाला दिन है और वैसे भी जल्दी ही बिक जाएगा ये सब फिर खेलते रहना दिन-भर।"
"अरे पर, ये बारि.. ।"
" चुप करके चल।" कहते हुए माँ ने एक थैला उसके कंधे पर टांग दिया और बाकी का अपने ऊपर लाद के चल पड़ी सड़क की ओर।
" उफ्फ ये आज़ादी का दिन साल में बस एक ही बार क्यूँ आता है? हर दिन आना चाहिए ये तो, ताकि हर दिन इतनी कमाई हो सके।" तभी सिग्नल हरा हो गया और गाड़ियों की 'पी पौं' से उसका ध्यान भंग हो गया और उसने देखा कि सड़क के उस पार ढ़ेर सारे बच्चे शोरूम के शीशे से चिपके हुए थे। चंचल मन, सो वो भी दौड़ पड़ा, उस तरफ।
इधर जैसे तैसे माल बेचकर माँ ज्यों ही पीछे मुड़ी, उसकी भौएं तन गई।
" हे भगवान, ये लड़का कहाँ गायब हो गया"।
थोड़ी घबराई, थोड़ी गुस्साई वो इधर उधर दौड़ कर